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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शांति-1 मुंशी प्रेम चंद

गोपा का मुरझाया हुआ मुख प्रमुदित हो उठा। बोली उसकी चिंता न करो भैया विधवा की आयु बहुत लंबी होती है। तुमने सुना नहीं, रॉंड मरे न खंडहर ढहे। लेकिन मेरी कामना यही है कि सुन्‍नी का ठिकाना लगाकर मैं भी चल दूं। अब और जीकर क्‍या करूंगी, सोचो। क्‍या करूं, अगर किसी तरह का विघ्‍न पड़ गया तो किसकी बदनामी होगी। इन चार महीनों में मुश्किल से घंटा भर सोती हूंगी। नींद ही नहीं आती, पर मेरा चित प्रसन्‍न है। मैं मरूं या जीऊँ मुझे यह संतोष तो होगा कि सुन्‍नी के लिए उसका बाप जो कर सकता था, वह मैंने कर दिया। मदारीलाल ने अपन सज्‍जनता दिखाय, तो मुझे भी तो अपनी नाक रखनी है।
एक देवी ने आकर कहा बहन, जरा चलकर देख चाशनी ठीक हो गई है
या नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी की परीक्षा करने गयीं और एक क्षण के बाद आकर बोली जी चाहता है, सिर पीट लूं। तुमसे जरा बात करने लगी, उधर चाशनी इतनी कडी हो गई कि लडडू दोंतों से लडेंगे। किससे क्‍या कहूं।
मैने चिढ़कर कहा तुम व्‍यर्थ का झंझट कर रही हो। क्‍यों नहीं किसी हलवाई को बुलाकर मिठाइयां का ठेका दे देती। फिर तुम्‍हारे यहां मेहमान ही कितने आएंगे, जिनके लिए यह तूमार बांध रही हो। दस पांच की मिठाई उनके लिए बहुत होगी।
गोपा ने व्‍यथित नेत्रों से मेर ओर देखा। मेर यह आलोचना उसे बुर लग। इन दिनों उसे बात बात पर क्रोध आ जाता था। बोली भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्‍हें न मां बनने का अवसर मिला, न पत्नि बनने का। सुन्‍नी के पिता का कितना नाम था, कितने आदमी उनके दम से जीते थे, क्‍या यह तुम नहीं जानते, वह पगड़ी मेरे ही सिर तो बंधी है। तुम्‍हें विश्‍वास न आएगा नास्तिक जो ठहरे, पर मैं तो उन्‍हें सदैव अपने अंदर बैठा पाती हूं, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। मैं मंदबुद्धि स्‍त्री भला अकेली क्‍या कर देती। वही मेरे सहायक हैं वही मेरे प्रकाश है। यह समझ लो कि यह देह मेरी है पर इसके अंदर जो आत्‍मा है वह उनकी है। जो कुछ हो रहा है उनके पुण्‍य आदेश से हो रहा है तुम उनके मित्र हो। तुमने अपने सैकड़ों रूपये खर्च किए और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगामिनी हूं, लोक में भी, परलोक में भी।
मैं अपना सा मुह लेकर रह गया।

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